Tuesday 6 October 2015

तुम स्वयं को सजाती रहो रात दिन





तुम स्वयं को सजाती रहो रात दिन
रात दिन में स्वयं को जलाता रहूँ
तुम मुझे देखकर ,मुड़  के चलती रहो
मैं विरह में मधुर गीत गाता  रहूँ

मैं  ज़माने की ठोकर ही खता रहूँ 
तुम ज़माने को ठोकर ही लगाती रहो 
जिंदगी के कमल पर गिरुं ओस सा 
तुम रोस की धुप बनकर सूखाती रहो 

काँटों की राह सजाती रहो तुम
मैं   उसी राह पर रोज जाता रहूँ  
तुम स्वयं को सजाती रहो रात दिन
रात दिन में स्वयं को जलाता रहूँ

मनाता हूँ प्रिये तुम मुझे ना मिलीं
और व्याकुल विरहा -भर मुझको दिया
लाख तोड़ा हृदय ,शब्द -आघात से
पर अमर गीत -उपहार दिया

तुम यूँ ही मुझको ,पल -पल में तोडा करो
मैं बिखर कर तराने बनता रहूँ
तुम स्वयं को सजाती रहो रात दिन
रात दिन में स्वयं को जलाता रहूँ

तुम जहां भी रहो खिलखिलाती रहो
मैं जहां भी रहूँ बस  सिसकता रहूँ 
तुम नयी मंजिलों की तरफ बढ़ चलो 
मैं  कदम-दो-कदम चल के थकता रहूँ 

तुम संभालती रहो में बहकता रहूँ  
दर्द की ही ग़ज़ल गुनगुनाता रहूँ
तुम स्वयं को सजाती रहो रात दिन
रात दिन में स्वयं को जलाता

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 11 अप्रैल 2020 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!


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  2. तुम जहां भी रहो खिलखिलाती रहो
    मैं जहां भी रहूँ बस सिसकता रहूँ
    तुम नयी मंजिलों की तरफ बढ़ चलो
    मैं कदम-दो-कदम चल के थकता रहूँ
    वाह!!!!
    क्या बात...
    बहुत ही सुन्दर

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